लोकल के वोकल बनने का सपना नही हो रहा पूरा, समिति-संस्थाएं चरखा दिखाकर आयोग से ले रहे फायदा
मधुबनी, देशज टाइम्स ब्यूूरो। मिल बने वस्त्रों को खादी khadi बताकर निजी खादी समितियों की ओर से बाजार पर कब्जा जमाया जा रहा है। इन मिल में कपड़े और चरखा पर बने कपड़े के बारीक अंतर की पहचान करने में होने वाली समस्याओं का लाभ इन समितियों की ओर से उठाया जा रहा है।
खादी ग्रामोद्योग आयोग और बोर्ड से निबंधित इन समितियों की ओर से चरखा और कतिन kargha पर बिना काम किये ही खादी को बाजार में उतारने का खेल बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।
खादी khadi के जानकार दिव्या रानी, अभिलाषा, कंचन पाठक, महेश मिश्रा, अनिल मिश्रा आदि की माने तो इन खादी संस्थाओं के द्वारा जिन कतीन और बुनकर को काम पर दिखा कर उत्पाद का सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर मार्केटिंग किया जा रहा है, उसमें उन लाभुकों की सूची को खंगाला जाए तो बड़ी गड़बड़ी का पर्दाफाश होगा।
इसमें करोड़ों रूपए का बंदरबांट किया जा रहा है। मो. इफ्तखार अहमद, मो. नसीम अहमद, मो. हामीद अंसारी आदि ने बताया कि इतना ही नहीं इन संस्थाओं के द्वारा खादी उत्पाद और बिक्री के नाम पर हर साल मिलने वाली करोड़ों रूपये का लाभ बिना किसी उत्पाद के ही गटक लिया जा रहा है।
यदि केवल उनके द्वारा सूत की खरीदारी का जो बिल दिया जाता है, उसकी जांच सही से हो जाए तो खादी के नाम पर हो रहे लूट खसोट में कई सफेदपोश गिरफ्त में आ जायेंगे। खादी से जुड़े कार्यकर्ता मो.अंजारूल हक, मो. शादीक ने बताया कि जिले में एक दर्जन ऐसी संस्था है जो खादी के नाम पर धंधा कर रही है।
जिसका ताल्लुक न तो कतिन से है और न ही बुनकरों से। पर चरखा, सूत और खादी के नाम पर प्रशिक्षण, बिक्री और बाजार के नाम पर लाभ लेने का काम कर रहा है। इसका नुकसान यह हो रहा है कि खादी का बाजार सही व सार्थक रूप से बढ़ नहीं रहा और सरकार के खादी ग्रामोद्योग संघ व संस्थाएं दम तोड़ रही है।
इतना ही नहीं लोकल के लिए वोकल बनने की मुहिम को भी नुकसान इससे हो रहा है। यानि कतीन और बुनकर को इससे काम और रोजगार नहीं मिल पा रहा है।
खादी प्रेमी नरेन्द्र मिश्रा,डा. संजय पाठक,संतोष मिश्रा आदि ने बताया कि खादी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक है। गांव को आत्मनिर्भर बनाने में खादी की उपादेयता को गांधी स्थापित कर चुके हैं। शरीर एवं स्वास्थ्य के लिए भी यह अतिआवश्यक है। इसके बावजूद इसके लिए गंभीर एवं सार्थक पहल नहीं होना। तथा इसकी आड़ में निजी संस्थाओं के द्वारा धंधा किया जाना अफसोस है।